Devi Mahatmyam ! !!
Argala StotraM!!
Parayana Sloka
||om tat sat||
श्री श्रीचण्डिका ध्यानमु
याचण्डी मधुकैट बाधिदलनी या माहीषोन्मूलिनी
या धूम्रेक्षण चण्डमुण्दमथनी या रक्त बीजाशनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी यासिद्धिदात्री परा
सा देवी नवकोटि मूर्ति सहिता मांपातु विश्वेश्वरी॥
॥ओम् तत् सत्॥
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अर्गलास्तोत्रं
मार्कंडेय उवाच:
ओं जयत्वं देवी चामुण्डे जयभूतापहारिणि।
जयसर्वगते देवी काळरात्री नमोsस्तु ते ॥1||
जयन्ति मंगळा काळी भद्रकाळी कपालिनी।
दुर्गाशिवा क्षमाधात्री स्वाहा स्वधा नमोsस्तु ते ॥2||
मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥3||
महिषासुरनिर्नासि भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥4||
धूम्रनेत्र वधे देवि धर्मकामर्थदायिनी।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5||
रक्तबीजवधे देवी चण्डमुण्दविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥6||
निशुम्भशुंभनिर्नाशि त्रैलोक्यशुभदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7||
वन्दितांघ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्य दायिनी।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥8||
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनी।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥9||
नतेभ्यः सर्वधा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥10||
स्तुवद्भ्यो भक्ति पूर्वं त्वां चण्डिके व्याधि नाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥11||
चण्डिके सततं युद्धे जयन्ति पापनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥12||
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देविपरं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥13||
विदेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥14||
विधेहि द्विषतां नाशं विदेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥15||
सुरासुर शिरोरत्न निघृष्ट चरणेsम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥16||
विद्यावन्तं यशस्वंतं लक्ष्मीवन्तंच मांकुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥17||
देवि प्रचण्डदोर्दण्द दैत्य दर्प निषूदिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥18||
प्रचण्ददैत्य दर्पघ्ने चण्डिके प्रणतायमे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥19||
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥20||
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥21||
हिमाचलसुतानाथ संस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥22||
इन्द्राणीपति सद्भाव पूजिते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥23||
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेsम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥24||
भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥25||
तारिणी दुर्गसंसार सागरस्याचलोद्भवे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥26||
इदं स्तोत्रं पठित्वातु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम्॥27||
इति मार्कंडेयपुराणे
अर्गळा स्तोत्रं समाप्तम्॥
॥ओम् तत् सत्॥
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17 10 2018 0700
||om tat sat||